मर्यादा की वेदी – मुंशी प्रेमचंद ( Maryada ki Vedi – Munshi Premchand) Part 2
मर्यादा की वेदी – मुंशी प्रेमचंद
( Maryada ki Vedi – Munshi Premchand)
Part 2
5
दस बजे रात का समय था। रणछोड़ जी के मन्दिर में कीर्तन समाप्त हो चुका था और वैष्णव साधु बैठे हुए प्रसाद पा रहे थे। मीरा स्वयं अपने हाथ से थाल ला-ला कर उनके आगे रखती थी। साधुओं और अभ्यागतों के आदर-सत्कार में उस देवी को आत्मिक आनन्द प्राप्त होता था। साधुगण जिस प्रेम से भोजन करते थे उससे यह शंका होती थी कि स्वादपूर्ण वस्तुओं में कहीं भक्ति-भजन से भी अधिक सुख तो नहीं है। यह सिद्ध हो चुका है कि ईश्वर की दी हुई वस्तुओं का सदुपयोग ही ईश्वरोपासना की मुख्य रीति है। इसीलिए ये महात्मा लोग उपासना के ऐसे अच्छे अवसरों को क्यों खोते वे कभी पेट पर हाथ फेरते और कभी आसन बदलते थे। मुँह से नहीं कहना तो वे घोर पाप के समान समझते थे। यह भी मानी हुई बात है कि जैसी वस्तुओं का हम सेवन करते हैं वैसी ही आत्मा भी बनती है। इसलिए वे महात्मागण घी और खोये से उदर को खूब भर रहे थे।
पर उन्हीं में एक महात्मा ऐसे भी थे जो आँखें बंद किये ध्यान में मग्न थे। थाल की ओर ताकते भी न थे। इनका नाम प्रेमानन्द था। ये आज ही आये थे। इनके चेहरे पर कांति झलकती थी। अन्य साधु खा कर उठ गये परंतु उन्होंने थाल छुआ भी नहीं।
मीरा ने हाथ जोड़ कर कहा-महाराज आपने प्रसाद को छुआ भी नहीं। दासी से कोई अपराध तो नहीं हुआ
साधु-नहीं इच्छा नहीं थी।
मीरा-पर मेरी विनय आपको माननी पड़ेगी।
साधु-मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा तो तुमको भी मेरी एक बात माननी होगी।
मीरा-कहिए क्या आज्ञा है।
साधु-माननी पड़ेगी।
मीरा-मानूँगी।
साधु-वचन देती हो
मीरा-वचन देती हूँ आप प्रसाद पायें।
मीराबाई ने समझा था कि साधु कोई मन्दिर बनवाने या कोई यज्ञ पूर्ण करा देने की याचना करेगा। ऐसी बातें नित्यप्रति हुआ ही करती थीं और मीरा का सर्वस्व साधु-सेवा के लिए अर्पित था परन्तु उसके लिए साधु ने ऐसी कोई याचना न की। वह मीरा के कानों के पास मुँह ले जा कर बोला-आज दो घंटे के बाद राजभवन का चोर दरवाजा खोल देना।
मीरा विस्मित हो कर बोली-आप कौन हैं
साधु-मंदार का राजकुमार।
मीरा ने राजकुमार को सिर से पाँव तक देखा। नेत्रों में आदर की जगह घृणा थी। कहा-राजपूत यों छल नहीं करते।
राजकुमार-यह नियम उस अवस्था के लिए है जब दोनों पक्ष समान शक्ति रखते हों।
मीरा-ऐसा नहीं हो सकता।
राजकुमार-आपने वचन दिया है उसका पालन करना होगा।
मीरा-महाराज की आज्ञा के सामने मेरे वचन का कोई महत्त्व नहीं।
राजकुमार-मैं यह कुछ नहीं जानता। यदि आपको अपने वचन की कुछ भी मर्यादा रखनी है तो उसे पूरा कीजिए।
मीरा-(सोच कर) महल में जा कर क्या करोगे
राजकुमार-नयी रानी से दो-दो बातें।
मीरा चिंता में विलीन हो गयी। एक तरफ राणा की कड़ी आज्ञा थी और दूसरी तरफ अपना वचन और उसका पालन करने का परिणाम। कितनी ही पौराणिक घटनाएँ उसके सामने आ रही थीं। दशरथ ने वचन पालने के लिए अपने प्रिय पुत्र को वनवास दे दिया। मैं वचन दे चुकी हूँ। उसे पूरा करना मेरा परम धर्म है लेकिन पति की आज्ञा को कैसे तोडूँ यदि उनकी आज्ञा के विरुद्ध करती हूँ तो लोक और परलोक दोनों बिगड़ते हैं। क्यों न उनसे स्पष्ट कह दूँ। क्या वे मेरी यह प्रार्थना स्वीकार न करेंगे मैंने आज तक उनसे कुछ नहीं माँगा। आज उनसे यह दान मागूँगी। क्या वे मेरे वचन की मर्यादा की रक्षा न करेंगे उनका हृदय कितना विशाल है ! निस्संदेह वे मुझ पर वचन तोड़ने का दोष न लगने देंगे।
इस तरह मन में निश्चय करके वह बोली-कब खोल दूँ
राजकुमार ने उछल कर कहा-आधी रात को।
मीरा-मैं स्वयं तुम्हारे साथ चलूँगी।
राजकुमार-क्यों
मीरा-तुमने मेरे साथ छल किया है। मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं है।
राजकुमार ने लज्जित हो कर कहा-अच्छा तो आप द्वार पर खड़ी रहियेगा।
मीरा-यदि फिर कोई दगा किया तो जान से हाथ धोना पड़ेगा।
राजकुमार-मैं सब कुछ सहने के लिए तैयार हूँ।
6
मीरा यहाँ से राणा की सेवा में पहुँची। वे उसका बहुत आदर करते थे। वे खड़े हो गये। इस समय मीरा का आना एक असाधारण बात थी। उन्होंने पूछा-बाई जी क्या आज्ञा है
मीरा-आपसे भिक्षा माँगने आयी हूँ। निराश न कीजिएगा। मैंने आज तक आपसे कोई विनती नहीं की पर आज एक ब्रह्म-फाँस में फँस गयी हूँ। इसमें से मुझे आप ही निकाल सकते हैं मंदार के राजकुमार को तो आप जानते हैं
राणा-हाँ अच्छी तरह।
मीरा-आज उसने मुझे बड़ा धोखा दिया। एक वैष्णव महात्मा का रूप धारण कर रणछोड़ जी के मंदिर में आया और उसने छल करके मुझे वचन देने पर बाध्य किया। मेरा साहस नहीं होता कि उसकी कपट विनय आपसे कहूँ।
राणा-प्रभा से मिला देने को तो कहा
मीरा-जी हाँ उसका अभिप्राय वही है। लेकिन सवाल यह है कि मैं आधी रात को राजमहल का गुप्त द्वार खोल दूँ। मैंने उसे बहुत समझाया बहुत धमकाया पर वह किसी भाँति न माना। निदान विवश हो कर जब मैंने कह दिया तब उसने प्रसाद पाया अब मेरे वचन की लाज आपके हाथ है। आप चाहे उसे पूरा करके मेरा मान रखें चाहे उसे तोड़ कर मेरा मान तोड़ दें। आप मेरे ऊपर जो कृपादृष्टि रखते हैं उसी के भरोसे मैंने वचन दिया। अब मुझे इस फंदे से उबारना आपका काम है।
राणा कुछ देर सोच कर बोले-तुमने वचन दिया है उसका पालन करना मेरा कर्त्तव्य है। तुम देवी हो तुम्हारे वचन नहीं टल सकते। द्वार खोल दो। लेकिन यह उचित नहीं है कि वह अकेले प्रभा से मुलाकात करे। तुम स्वयं उसके साथ जाना। मेरी खातिर से इतना कष्ट उठाना। मुझे भय है कि वह उसकी जान लेने का इरादा करके न आया हो। ईर्ष्या में मनुष्य अंधा हो जाता है। बाई जी मैं अपने हृदय की बात तुमसे कहता हूँ। मुझे प्रभा को हर लाने का अत्यंत शोक है। मैंने समझा था कि यहाँ रहते-रहते वह हिल-मिल जायगी किंतु वह अनुमान गलत निकला। तुझे भय है कि यदि उसे कुछ दिन यहाँ और रहना पड़ा तो वह जीती न बचेगी। मुझ पर एक अबला की हत्या का अपराध लग जायगा। मैंने उससे झालावाड़ जाने के लिए कहा पर वह राजी न हुई। आज तुम उन दोनों की बातें सुनो। अगर वह मंदार-कुमार के साथ जाने पर राजी हो तो मैं प्रसन्नतापूर्वक अनुमति दे दूँगा। मुझसे कुढ़ना नहीं देखा जाता। ईश्वर इस सुंदरी का हृदय मेरी ओर फेर देता तो मेरा जीवन सफल हो जाता। किंतु जब यह सुख भाग्य में लिखा ही नहीं है तो क्या वश है। मैंने तुमसे ये बातें कहीं इसके लिए मुझे क्षमा करना। तुम्हारे पवित्र हृदय में ऐसे विषयों के लिए स्थान कहाँ
मीरा ने आकाश की ओर संकोच से देख कर कहा-तो मुझे आज्ञा है मैं चोर-द्वार खोल दूँ
राणा-तुम इस घर की स्वामिनी हो मुझसे पूछने की जरूरत नहीं।
मीरा राणा को प्रणाम कर चली गयी।
7
आधी रात बीत चुकी थी। प्रभा चुपचाप बैठी दीपक की ओर देख रही थी और सोचती थी इसके घुलने से प्रकाश होता है यह बत्ती अगर जलती है तो दूसरों को लाभ पहुँचाती है। मेरे जलने से किसी को क्या लाभ मैं क्यों घुलूँ मेरे जीने की जरूरत है
उसने फिर खिड़की से सिर निकाल कर आकाश की तरफ देखा। काले पट पर उज्ज्वल तारे जगमगा रहे थे। प्रभा ने सोचा मेरे अंधकारमय भाग्य में ये दीप्तिमान तारे कहाँ हैं मेरे लिए जीवन के सुख कहाँ हैं क्या रोने के लिए जीऊँ ऐसे जीने से क्या लाभ और जीने में उपहास भी तो है। मेरे मन का हाल कौन जानता है संसार मेरी निंदा करता होगा। झालावाड़ की स्त्रियाँ मेरे मृत्यु के शुभ समाचार सुनने की प्रतीक्षा कर रही होंगी। मेरी प्रिय माता लज्जा से आँखें न उठा सकती होंगी। लेकिन जिस समय मेरे मरने की खबर मिलेगी गर्व से उनका मस्तक ऊँचा हो जायगा। यह बेहयाई का जीना है। ऐसे जीने से मरना कहीं उत्तम है।
प्रभा ने तकिये के नीचे से एक चमकती हुई कटार निकाली। उसके हाथ काँप रहे थे। उसने कटार की तरफ आँखें जमायीं। हृदय को उसके अभिवादन के लिए मजबूत किया। हाथ उठाया किन्तु हाथ न उठा आत्मा दृढ़ न थी। आँखें झपक गयीं। सिर में चक्कर आ गया। कटार हाथ से छूट कर जमीन पर गिर पड़ी।
प्रभा क्रुद्ध हो कर सोचने लगी-क्या मैं वास्तव में निर्लज्ज हूँ मैं राजपूतनी हो कर मरने से डरती हूँ मान-मर्यादा खो कर बेहया लोग ही जिया करते हैं। वह कौन-सी आकांक्षा है जिसने मेरी आत्मा को इतना निर्बल बना रखा है। क्या राणा की मीठी-मीठी बातें राणा मेरे शत्रु हैं। उन्होंने मुझे पशु समझ रखा है जिसे फँसाने के पश्चात् हम पिंजरे में बंद करके हिलाते हैं। उन्होंने मेरे मन को अपनी वाक्-मधुरता का क्रीड़ा-स्थल समझ लिया है। वे इस तरह घुमा-घुमा कर बातें करते हैं और मेरी तरफ से युक्तियाँ निकाल कर उनका ऐसा उत्तर देते हैं कि जबान ही बंद हो जाती है। हाय ! निर्दयी ने मेरा जीवन नष्ट कर दिया और मुझे यों खेलाता है ! क्या इसीलिए जीऊँ कि उसके कपट भावों का खिलौना बनूँ
फिर वह कौन-सी अभिलाषा है क्या राजकुमार का प्रेम उनकी तो अब कल्पना ही मेरे लिए घोर पाप है। मैं अब उस देवता के योग्य नहीं हूँ प्रियतम ! बहुत दिन हुए मैंने तुमको हृदय से निकाल दिया। तुम भी मुझे दिल से निकाल डालो। मृत्यु के सिवाय अब कहीं मेरा ठिकाना नहीं है। शंकर ! मेरी निर्बल आत्मा को शक्ति प्रदान करो। मुझे कर्त्तव्य-पालन का बल दो।
प्रभा ने फिर कटार निकाली। इच्छा दृढ़ थी। हाथ उठा और निकट था कि कटार उसके शोकातुर हृदय में चुभ जाय कि इतने में किसी के पाँव की आहट सुनायी दी। उसने चौंक कर सहमी दृष्टि से देखा। मंदार-कुमार धीरे-धीरे पैर दबाता हुआ कमरे में दाखिल हुआ।
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प्रभा उसे देखते ही चौंक पड़ी। उसने कटार को छिपा लिया। राजकुमार को देख कर उसे आनन्द की जगह रोमांचकारी भय उत्पन्न हुआ। यदि किसी को जरा भी संदेह हो गया तो इनका प्राण बचना कठिन है। इनको तुरंत यहाँ से निकल जाना चाहिए। यदि इन्हें बातें करने का अवसर दूँ तो विलम्ब होगा और फिर ये अवश्य ही फँस जायेंगे। राणा इन्हें कदापि न छोड़ेंगे। ये विचार वायु और बिजली की तीव्रता के साथ उसके मस्तिष्क में दौड़े। वह तीव्र स्वर में बोली-भीतर मत आओ।
राजकुमार ने पूछा-मुझे पहचाना नहीं
प्रभा-खूब पहचान लिया किन्तु यह बातें करने का समय नहीं है। राणा तुम्हारी घात में हैं। अभी यहाँ से चले जाओ।
राजकुमार ने एक पग और आगे बढ़ाया और निर्भीकता से कहा-प्रभा तुम मुझसे निष्ठुरता करती हो।
प्रभा ने धमका कर कहा-तुम यहाँ ठहरोगे तो मैं शोर मचा दूँगी।
राजकुमार ने उद्दंडता से उत्तर दिया-इसका मुझे भय नहीं। मैं अपनी जान हथेली पर रख कर आया हूँ। आज दोनों में से एक का अंत हो जायगा। या तो राणा रहेंगे या मैं रहूँगा। तुम मेरे साथ चलोगी
प्रभा ने दृढ़ता से कहा-नहीं।
राजकुमार व्यंग्य भाव से बोला-क्यों क्या चित्तौड़ की जलवायु पसंद आ गयी
प्रभा ने राजकुमार की ओर तिरस्कृत नेत्रों से देख कर कहा-संसार में अपनी सब आशाएँ पूरी नहीं होतीं। जिस तरह यहाँ मैं अपना जीवन काट रही हूँ वह मैं ही जानती हूँ किन्तु लोक-निंदा भी तो कोई चीज है ! संसार की दृष्टि में मैं चित्तौड़ की रानी हो चुकी। अब राणा जिस भाँति रखें उसी भाँति रहूँगी। मैं अंत समय तक उनसे घृणा करूँगी जलूँगी कुढूँगी। जब जलन न सही जायगी तो विष खा लूँगी या छाती में कटार मार कर मर जाऊँगी लेकिन इसी भवन में। इस घर के बाहर कदापि पैर न रखूँगी।
राजकुमार के मन में संदेह हुआ कि प्रभा पर राणा का वशीकरण मंत्र चल गया। यह मुझसे छल कर रही है। प्रेम की जगह ईर्ष्या पैदा हुई। वह उसी भाव से बोला-और यदि मैं यहाँ से उठा ले जाऊँ प्रभा के तीवर बदल गये। बोली-तो मैं वही करूँगी जो ऐसी अवस्था में क्षत्रणियाँ किया करती हैं। अपने गले में छुरी मार लूँगी या तुम्हारे गले में।
राजकुमार एक पग और आगे बढ़ा कर यह कटुवाक्य बोला-राणा के साथ तो तुम खुशी से चली आयी। उस समय छुरी कहाँ गयी थी
प्रभा को यह शब्द शर-सा लगा। वह तिलमिला कर बोली-उस समय इसी छुरी के एक वार से खून की नदी बहने लगती। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे कारण मेरे भाई-बंधुओं की जान जाय। इसके सिवाय मैं कुँवारी थी। मुझे अपनी मर्यादा के भंग होने का कोई भय न था। मैंने पातिव्रत नहीं लिया। कम से कम संसार मुझे ऐसा समझता था। मैं अपनी दृष्टि में अब भी वही हूँ किंतु संसार की दृष्टि में कुछ और हो गयी हूँ। लोक-लाज ने मुझे राणा की आज्ञाकारिणी बना दिया है। पातिव्रत की बेड़ी जबरदस्ती मेरे पैरों में डाल दी गयी है। अब इसकी रक्षा करना मेरा धर्म है। इसके विपरीत और कुछ करना क्षत्रणियों के नाम को कलंकित करना है। तुम मेरे घाव पर व्यर्थ नमक क्यों छिड़कते हो यह कौन-सी भलमनसी है मेरे भाग्य में जो कुछ बदा है वह भोग रही हूँ। मुझे भोगने दो और तुमसे विनती करती हूँ कि शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ।
राजकुमार एक पग और बढ़ा कर दुष्ट-भाव से बोला-प्रभा यहाँ आ कर तुम त्रियाचरित्र में निपुण हो गयी। तुम मेरे साथ विश्वासघात करके अब धर्म की आड़ ले रही हो। तुमने मेरे प्रणय को पैरों तले कुचल दिया और अब मर्यादा का बहाना ढूँढ़ रही हो। मैं इन नेत्रों से राणा को तुम्हारे सौन्दर्य-पुष्प का भ्रमर बनते नहीं देख सकता। मेरी कामनाएँ मिट्टी में मिलती हैं तो तुम्हें ले कर जायेंगी। मेरा जीवन नष्ट होता है तो उसके पहले तुम्हारे जीवन का भी अन्त होगा। तुम्हारी बेवफाई का यही दंड है। बोलो क्या निश्चय करती हो इस समय मेरे साथ चलती हो या नहीं किले के बाहर मेरे आदमी खड़े हैं।
प्रभा ने निर्भयता से कहा-नहीं।
राजकुमार-सोच लो नहीं तो पछताओगी।
प्रभा-खूब सोच लिया।
राजकुमार ने तलवार खींच ली और वह प्रभा की तरफ लपके। प्रभा भय से आँखें बन्द किये एक कदम पीछे हट गयी। मालूम होता था उसे मूर्च्छा आ जायगी।
अकस्मात् राणा तलवार लिये वेग के साथ कमरे में दाखिल हुए। राजकुमार सँभल कर खड़ा हो गया।
राणा ने सिंह के समान गरज कर कहा-दूर हट। क्षत्रिय स्त्रियों पर हाथ नहीं उठाते।
राजकुमार ने तन कर उत्तर दिया-लज्जाहीन स्त्रियों की यही सजा है।
राणा ने कहा-तुम्हारा वैरी तो मैं था। मेरे सामने आते क्यों लजाते थे। जरा मैं भी तुम्हारी तलवार की काट देखता।
राजकुमार ने ऐंठ कर राणा पर तलवार चलायी। शस्त्र-विद्या में राणा अति कुशल थे। वार खाली दे कर राजकुमार पर झपटे। इतने में प्रभा जो मूर्च्छित अवस्था में दीवार से चिमटी खड़ी थी बिजली की तरह कौंध कर राजकुमार के सामने खड़ी हो गयी। राणा वार कर चुके थे। तलवार का पूरा हाथ उसके कंधे पर पड़ा। रक्त की फुहार छूटने लगी। राणा ने एक ठंडी साँस ली और उन्होंने तलवार हाथ से फेंक कर गिरती हुई प्रभा को सँभाल लिया।
क्षणमात्र में प्रभा का मुखमंडल वर्णहीन हो गया। आँखें बुझ गयीं। दीपक ठंडा हो गया। मन्दार-कुमार ने भी तलवार फेंक दी और वह आँखों में आँसू भर प्रभा के सामने घुटने टेक कर बैठ गया। दोनों प्रेमियों की आँखें सजल थीं। पतिंगे बुझे हुए दीपक पर जान दे रहे थे।
प्रेम के रहस्य निराले हैं। अभी एक क्षण हुआ राजकुमार प्रभा पर तलवार ले कर झपटा था। प्रभा किसी प्रकार उसके साथ चलने पर उद्यत न होती थी। लज्जा का भय धर्म की बेड़ी कर्त्तव्य की दीवार रास्ता रोके खड़ी थी। परन्तु उसे तलवार के सामने देख कर उसने उस पर अपना प्राण अर्पण कर दिया। प्रीति की प्रथा निबाह दी लेकिन अपने वचन के अनुसार उसी घर में।
हाँ प्रेम के रहस्य निराले हैं। अभी एक क्षण पहले राजकुमार प्रभा पर तलवार ले कर झपटा था। उसके खून का प्यासा था। ईर्ष्या की अग्नि उसके हृदय में दहक रही थी। वह रुधिर की धारा से शांत हो गयी। कुछ देर तक वह अचेत बैठा रोता रहा। फिर उठा और उसने तलवार उठा कर जोर से अपनी छाती में चुभा ली। फिर रक्त की फुहार निकली। दोनों धाराएँ मिल गयीं और उनमें कोई भेद न रहा।
प्रभा उसके साथ चलने पर राजी न थी। किंतु वह प्रेम के बन्धन को तोड़ न सकी। दोनों उस घर ही से नहीं संसार से एक साथ सिधारे।