गृह दाह – मुंशी प्रेमचंद (Griha Daah – Munshi Premchand) – Part – 2

गृह दाह – मुंशी प्रेमचंद

(Griha Daah – Munshi Premchand)

उस दिन से सत्यप्रकाश के स्वभाव में एक विचित्र परिवर्तन दिखायी देने लगा। वह घर में बहुत कम आता। पिता आते तो उनसे मुँह छिपाता फिरता। कोई खाना खाने को बुलाने आता तो चोरों की भाँति दुबका हुआ जा कर खा लेता न कुछ माँगता न कुछ बोलता। पहले अत्यंत कुशाग्रबुद्धि था। उसकी सफाई सलीके और फुरती पर लोग मुग्ध हो जाते थे। अब वह पढ़ने से जी चुराता मैले-कुचैले कपड़े पहिने रहता। घर में कोई प्रेम करनेवाला न था। बाजार के लड़कों के साथ गली-गली घूमता कनकौवे लूटता गालियाँ बकना भी सीख गया। शरीर भी दुर्बल हो गया। चेहरे की कांति गायब हो गयी। देवप्रकाश को अब आये-दिन उसकी शरारतों के उलाहने मिलने लगे और सत्यप्रकाश नित्य घुड़कियाँ और तमाचे खाने लगा यहाँ तक कि अगर वह घर में किसी काम से चला जाता तो सब लोग दुर-दुर करके दौड़ाते। ज्ञानप्रकाश को पढ़ाने के लिए मास्टर आता था। देवप्रकाश उसे रोज सैर कराने साथ ले जाते। हँसमुख लड़का था। देवप्रिया उसे सत्यप्रकाश के साथ से भी बचाती रहती थी। दोनों लड़कों में कितना अंतर था ! एक साफ सुथरा सुन्दर कपड़े पहिने शील और विनय का पुतला सच बोलनेवाला। देखनेवालों के मुँह से अनायास ही दुआ निकल आती थी। दूसरा मैला नटखट चोरों की तरह मुँह छिपाये हुए मुँहफट बात-बात पर गालियाँ बकनेवाला। एक हरा-भरा पौधा था प्रेम से प्लावित स्नेह से सिंचित दूसरा सूखा हुआ टेढ़ा पल्लवहीन नववृक्ष था जिसकी जड़ों को एक मुद्दत से पानी नहीं नसीब हुआ। एक को देख कर पिता की छाती ठंडी होती थी दूसरे को देख कर देह में आग लग जाती थी।

आश्चर्य यह था कि सत्यप्रकाश को अपने छोटे भाई से लेशमात्र भी ईर्ष्या न थी। अगर उसके हृदय में कोई कोमल भाव शेष रह गया था तो वह अपने भाई के प्रति स्नेह था। उस मरुभूमि में यही एक हरियाली थी। ईर्ष्या साम्यभाव की द्योतक है। सत्यप्रकाश अपने भाई को अपने से कहीं ऊँचा कहीं भाग्यशाली समझता था। उसमें ईर्ष्या का भाव ही लोप हो गया था।

घृणा से घृणा उत्पन्न होती है। प्रेम से प्रेम। ज्ञान भी बड़े भाई को चाहता था। कभी-कभी उसका पक्ष ले कर अपनी माँ से वाद-विवाद कर कहता भैया की अचकन फट गयी है आप नयी अचकन क्यों नहीं बनवा देतीं माँ उत्तर देती-उसके लिए वही अचकन अच्छी है। अभी क्या कभी तो वह नंगा फिरेगा। ज्ञानप्रकाश बहुत चाहता था कि अपने जेब-खर्च से बचा कर कुछ अपने भाई को दे पर सत्यप्रकाश कभी इसे स्वीकार न करता था। वास्तव में जितनी देर वह छोटे भाई के साथ रहता उतनी देर उसे एक शांतिमय आनन्द का अनुभव होता। थोड़ी देर के लिए वह सद्भावों के साम्राज्य में विचरने लगता। उसके मुख से कोई भद्दी और अप्रिय बात न निकलती। एक क्षण के लिए उसकी सोयी हुई आत्मा जाग उठती।

एक बार कई दिन तक सत्यप्रकाश मदरसे न गया। पिता ने पूछा-तुम आजकल पढ़ने क्यों नहीं जाते क्या सोच रखा है कि मैंने तुम्हारी जिन्दगी भर का ठेका ले रखा है।

सत्य.-मेरे ऊपर जुर्माने और फीस के कई रुपये हो गये हैं। जाता हूँ तो दरजे से निकाल दिया जाता हूँ।

देव.-फीस क्यों बाकी है तुम तो महीने-महीने ले लिया करते हो न

सत्य.-आये-दिन चन्दे लगा करते हैं फीस के रुपये चन्दे में दे दिये।

देव.-और जुर्माना क्यों हुआ

सत्य.-फीस न देने के कारण।

देव.-तुमने चन्दा क्यों दिया !

सत्य.-ज्ञानू ने चन्दा दिया तो मैंने भी दिया।

देव.-तुम ज्ञानू से जलते हो

सत्य.-मैं ज्ञानू से क्यों जलने लगा। यहाँ हम और वह दो हैं बाहर हम और वह एक समझे जाते हैं। मैं यह नहीं कहना चाहता कि मेरे कुछ नहीं है।

देव.-क्यों यह कहते शर्म आती है

सत्य.-जी हाँ आपकी बदनामी होगी।

देव.-अच्छा तो आप मेरी मानरक्षा करते हैं। यह क्यों नहीं कहते कि पढ़ना अब मुझे मंजूर नहीं है। मेरे पास इतना रुपया नहीं कि तुम्हें एक-एक क्लास में तीन-तीन साल पढ़ाऊँ और ऊपर से तुम्हारे खर्च के लिए भी प्रतिमास कुछ दूँ। ज्ञानबाबू तुमसे कितना छोटा है लेकिन तुमसे एक ही दर्जा नीचे है। तुम इस साल जरूर ही फेल होओगे और वह जरूर ही पास हो कर अगले साल तुम्हारे साथ हो जायगा। तब तो तुम्हारे मुँह में कालिख लगेगी

सत्य.-विद्या मेरे भाग्य ही में नहीं है।

देव.-तुम्हारे भाग्य में क्या है

सत्य.-भीख माँगना।

देव.-तो फिर भीख माँगो। मेरे घर से निकल जाओ।

देवप्रिया भी आ गयी। बोली-शरमाता तो नहीं और बातों का जवाब देता है !

सत्य.-जिनके भाग्य में भीख माँगना होता है वही बचपन में अनाथ हो जाते हैं।

देवप्रिया-ये जली-कटी बातें अब मुझसे न सही जायेंगी। मैं खून का घूँट पी-पी कर रह जाती हूँ।

देवप्रकाश-बेहया है। कल से इसका नाम कटवा दूँगा। भीख माँगनी है तो भीख ही माँगे।

दूसरे दिन सत्यप्रकाश ने घर से निकलने की तैयारी कर दी। उसकी उम्र अब 16 साल की हो गयी थी। इतनी बातें सुनने के बाद अब उसे उस घर में रहना असह्य हो गया। जब हाथ-पाँव न थे किशोरावस्था की असमर्थता थी तब तक अवहेलना निरादर निष्ठुरता भर्त्सना सब कुछ सह कर घर में रहता था। अब हाथ-पाँव हो गये थे उस बंधन में क्यों रहता। आत्माभिमान आशा की भाँति बहुत चिरंजीवी होता है।

गर्मी के दिन थे। दोपहर का समय। घर के सब प्राणी सो रहे थे। सत्यप्रकाश ने अपनी धोती बगल में दबायी छोटा-सा बेग हाथ में लिया और चाहता था कि चुपके से बैठक से निकल जाय कि ज्ञानू आ गया और उसे कहीं जाने को तैयार देख कर बोला-कहाँ जाते हो भैया

सत्य.-जाता हूँ कहीं नौकरी करूँगा।

ज्ञानू.-मैं जा कर अम्माँ से कहे देता हूँ।

सत्य.-तो फिर मैं तुमसे छिपकर चला जाऊँगा।

ज्ञानू.-क्यों चले जाओगे तुम्हें मेरी जरा भी मुहब्बत नहीं

सत्यप्रकाश ने भाई को गले लगा कर कहा-तुम्हें छोड़ कर जाने को जी तो नहीं चाहता लेकिन जहाँ कोई पूछने वाला नहीं है वहाँ पड़े रहना बेहयाई है। कहीं दस-पाँच की नौकरी कर लूँगा और पेट पालता रहूँगा। और किस लायक हूँ

ज्ञानू.-तुमसे अम्माँ क्यों इतना चिढ़ती हैं मुझे तुमसे मिलने को मना किया करती हैं

सत्य.-मेरे नसीब खोटे हैं और क्या।

ज्ञानू.-तुम लिखने-पढ़ने में जी नहीं लगाते

सत्य.-लगता ही नहीं कैसे लगाऊँ जब कोई परवा नहीं करता तो मैं भी सोचता हूँ-उँह यही न होगा ठोकर खाऊँगा। बला से !

ज्ञानू.-मुझे भूल तो न जाओगे मैं तुम्हारे पास खत लिखा करूँगा मुझे भी एक बार अपने यहाँ बुलाना।

सत्य.-तुम्हारे स्कूल के पते से चिट्ठी लिखूँगा।

ज्ञानू.-(रोते-रोते) मुझे न जाने क्यों तुम्हारी बड़ी मुहब्बत लगती है !

सत्य.-मैं तुम्हें सदैव याद रखूँगा।

यह कह कर उसने फिर भाई को गले लगाया और घर से निकल पड़ा। पास एक कौड़ी भी न थी और वह कलकत्ते जा रहा था।

सत्यप्रकाश कलकत्ते क्योंकर पहुँचा इसका वृत्तांत लिखना व्यर्थ है। युवकों में दुस्साहस की मात्र अधिक होती है। वे हवा में किले बना सकते हैं धरती पर नाव चला सकते हैं। कठिनाइयों की उन्हें कुछ परवा नहीं होती। अपने ऊपर असीम विश्वास होता है। कलकत्ते पहुँचना ऐसा कष्ट-साध्य न था। सत्यप्रकाश चतुर युवक था। पहिले ही उसने निश्चय कर लिया था कि कलकत्ते में क्या करूँगा कहाँ रहूँगा। उसके बेग में लिखने की सामग्री मौजूद थी। बड़े शहर में जीविका का प्रश्न कठिन भी है और सरल भी है। सरल है उनके लिए जो हाथ से काम कर सकते हैं कठिन है उनके लिए जो कलम से काम करते हैं। सत्यप्रकाश मजदूरी करना नीच काम समझता था। उसने एक धर्मशाला में असबाब रखा। बाद में शहर के मुख्य स्थानों का निरीक्षण करके एक डाकघर के सामने लिखने का सामान लेकर बैठ गया और अपढ़ मजदूरों की चिट्ठियाँ मनीआर्डर आदि लिखने का व्यवसाय करने लगा। पहले कई दिन तो उसको इतने पैसे भी न मिले कि भर-पेट भोजन करता लेकिन धीरे-धीरे आमदनी बढ़ने लगी। वह मजदूरों से इतने विनय के साथ बातें करता और उनके समाचार इतने विस्तार से लिखता कि बस वे पत्र को सुन कर बहुत प्रसन्न होते। अशिक्षित लोग एक ही बात को दो-दो तीन-तीन बार लिखाते हैं। उनकी दशा ठीक रोगियों की-सी होती है जो वैद्य से अपनी व्यथा और वेदना का वृत्तांत कहते नहीं थकते। सत्यप्रकाश सूत्र को व्याख्या का रूप दे कर मजदूरों को मुग्ध कर देता था। एक संतुष्ट हो कर जाता तो अपने कई अन्य भाइयों को खोज लाता। एक ही महीने में उसे 1 रु. रोज मिलने लगा। उसने धर्मशाला से निकल कर शहर से बाहर 5 रु. महीने पर एक छोटी-सी कोठरी ले ली। एक जून खाता। बर्तन अपने हाथों से धोता। जमीन पर सोता। उसे अपने निर्वासन पर जरा भी खेद और दुःख न था। घर के लोगों की कभी याद न आती। वह अपनी दशा पर संतुष्ट था। केवल ज्ञानप्रकाश की प्रेमयुक्त बातें न भूलतीं। अंधकार में यही एक प्रकाश था। बिदाई का अंतिम दृश्य आँखों के सामने फिरा करता। जीविका से निश्चिंत हो कर उसने ज्ञानप्रकाश को एक पत्र लिखा। उत्तर आया तो उसके आनंद की सीमा न रही। ज्ञानू मुझे याद करके रोता है मेरे पास आना चाहता है स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं है। प्यासे को पानी से जो तृप्ति होती है वही तृप्ति इस पत्र से सत्यप्रकाश को हुई। मैं अकेला नहीं हूँ कोई मुझे भी चाहता है-मुझे भी याद करता है।

उसी दिन से सत्यप्रकाश को यह चिंता हुई कि ज्ञान के लिए कोई उपहार भेजूँ। युवकों को मित्र बहुत जल्द मिल जाते हैं। सत्यप्रकाश को भी कई युवकों से मित्रता हो गयी थी। उनके साथ कई बार सिनेमा देखने गया। कई बार बूटी-भंग शराब-कबाब की भी ठहरी। आईना तेल कंघी का शौक भी पैदा हुआ जो कुछ पाता उड़ा देता। बड़े वेग से नैतिक पतन और शारीरिक विनाश की ओर दौड़ा चला जाता था। इस प्रेम-पत्र ने उसके पैर पकड़ लिये। उपहार के प्रयास ने इन दुर्व्यसनों को तिरोहित करना शुरू किया। सिनेमा का चसका छूटा मित्रों को हीले-हवाले करके टालने लगा। भोजन भी रूखा-सूखा करने लगा। धन-संचय की चिंता ने सारी इच्छाओं को परास्त कर दिया। उसने निश्चय किया कि अच्छी-सी घड़ी भेजूँ। उसका दाम कम से कम 40 रु. होगा। अगर तीन महीने तक एक कौड़ी का भी अपव्यय न करूँ तो घड़ी मिल सकती है। ज्ञानू घड़ी देख कर कैसा खुश होगा ! अम्माँ और बाबू जी भी देखेंगे। उन्हें मालूम हो जायगा कि मैं भूखों नहीं मर रहा हूँ। किफायत की धुन में वह बहुधा दिया-बत्ती भी न करता। बड़े सबेरे काम करने चला जाता और सारे दिन दो-चार पैसे की मिठाई खा कर काम करता रहता। उसके ग्राहकों की संख्या दिन-दूनी होती जाती थी। चिट्ठी-पत्री के अतिरिक्त अब उसने तार लिखने का भी अभ्यास कर लिया था। दो ही महीने में उसके पास 50 रु. एकत्र हो गये और जब घड़ी के साथ सुनहरी चेन का पारसल बना कर ज्ञानू के नाम भेज दिया तो उसका चित्त इतना उत्साहित था मानो किसी निस्संतान पुरुष के बालक हुआ हो।

घर कितनी कोमल पवित्र मनोहर स्मृतियों को जागृत कर देता है ! यह प्रेम का निवास-स्थान है। प्रेम ने बहुत तपस्या करके यह वरदान पाया है।

किशोरावस्था में घर माता-पिता भाई-बहन सखी-सहेली के प्रेम की याद दिलाता है प्रौढ़ावस्था में गृहिणी और बाल-बच्चों के प्रेम की। यही वह लहर है जो मानव-जीवन मात्र को स्थिर रखता है उसे समुद्र की वेगवती लहरों में बहने और चट्टानों से टकराने से बचाता है। यही वह मंडप है जो जीवन को समस्त विघ्न-बाधाओं से सुरक्षित रखता है।

सत्यप्रकाश का घर कहाँ था वह कौन-सी शक्ति थी जो कलकत्ते के विराट प्रलोभनों से उसकी रक्षा करती थी -माता का प्रेम पिता का स्नेह बाल-बच्चों की चिंता -नहीं उनका रक्षक उद्धारक उसका पारितोषिक केवल ज्ञानप्रकाश का स्नेह था। उसी के निमित्त वह एक-एक पैसे की किफायत करता था उसी के लिए वह कठिन परिश्रम करता था और धनोपार्जन के नये-नये उपाय सोचता था। उसे ज्ञानप्रकाश के पत्रों से मालूम हुआ था कि इन दिनों देवप्रकाश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। वे एक घर बनवा रहे हैं जिसमें व्यय अनुमान से अधिक हो जाने के कारण ऋण लेना पड़ा है इसलिए अब ज्ञानप्रकाश को पढ़ाने के लिए घर पर मास्टर नहीं आता। तब से सत्यप्रकाश प्रतिमाह ज्ञानू के पास कुछ न कुछ अवश्य भेज देता था। वह अब केवल पत्रलेखक न था लिखने के सामान की एक छोटी-दूकान भी उसने खोल ली थी। इससे अच्छी आमदनी हो जाती थी। इस तरह पाँच वर्ष बीत गये। रसिक मित्रों ने जब देखा कि अब यह हत्थे नहीं चढ़ता तो उसके पास आना-जाना छोड़ दिया।

संध्या का समय था। देवप्रकाश अपने मकान में बैठे देवप्रिया से ज्ञानप्रकाश के विवाह के सम्बन्ध में बातें कर रहे थे। ज्ञानू अब 17 वर्ष का सुंदर युवक था। बालविवाह के विरोधी होने पर भी देवप्रकाश अब इस शुभमुहूर्त को न टाल सकते थे। विशेषतः जब कोई महाशय 50 000 रु. दायज देने को प्रस्तुत हों।

देवप्रकाश-मैं तो तैयार हूँ लेकिन तुम्हारा लड़का भी तो तैयार हो !

देवप्रिया-तुम बातचीत पक्की कर लो वह तैयार हो ही जायगा। सभी लड़के पहले नहीं करते हैं।

देव.-ज्ञानू का इनकार केवल संकोच का इनकार नहीं है वह सिद्धांत का इनकार है। वह साफ-साफ कह रहा है कि जब तक भैया का विवाह न होगा मैं अपना विवाह करने पर राजी नहीं हूँ।

देवप्रिया-उसकी कौन चलावे वहाँ कोई रखैली रख ली होगी विवाह क्यों करेगा वहाँ कोई देखने जाता है

देव.-(झुँझला कर) रखैली रख ली होती तो तुम्हारे लड़के को 40 रु. महीने न भेजता और न वे चीजें ही देता जो पहले महीने से अब तक बराबर देता चला आता है। न जाने क्यों तुम्हारा मन उसकी ओर से इतना मैला हो गया है ! चाहे वह जान निकाल कर भी दे दे लेकिन तुम न पसीजोगी। देवप्रिया नाराज हो कर चली गयी। देवप्रकाश उससे यही कहलाना चाहते थे कि पहिले सत्यप्रकाश का विवाह करना उचित है किंतु वह कभी इस प्रसंग को आने ही न देती थी। स्वयं देवप्रकाश की यह हार्दिक इच्छा थी कि पहिले बड़े लड़के का विवाह करें पर उन्होंने भी आज तक सत्यप्रकाश को कोई पत्र न लिखा था। देवप्रिया के चले जाने के बाद उन्होंने आज पहली बार सत्य्रपकाश को पत्र लिखा। पहिले इतने दिनों तक चुपचाप रहने के लिए क्षमा माँगी तब उसे एक बार घर आने का प्रेमाग्रह किया। लिखा अब मैं कुछ ही दिनों का मेहमान हूँ। मेरी अभिलाषा है कि तुम्हारा और तुम्हारे छोटे भाई का विवाह देख लूँ। मुझे बहुत दुःख होगा यदि तुम मेरी विनय स्वीकार न करोगे। ज्ञानप्रकाश के असमंजस की बात भी लिखी अंत में इस बात पर जोर दिया कि किसी और विचार से नहीं तो ज्ञानू के प्रेम के नाते ही तुम्हें इस बंधन में पड़ना होगा।

सत्यप्रकाश को यह पत्र मिला तो उसे बहुत खेद हुआ। मेरे भ्रातृस्नेह का यह परिणाम होगा मुझे न मालूम था। इसके साथ ही उसे यह ईर्ष्यामय आनंद हुआ कि अम्माँ और दादा को अब तो कुछ मानसिक पीड़ा होगी। मेरी उन्हें क्या चिंता थी मैं तो मर भी जाऊँ तो भी उनकी आँखों में आँसू न आयें। 7 वर्ष हो गये कभी भूल कर भी पत्र न लिखा कि मरा है या जीता है। अब कुछ चेतावनी मिलेगी। ज्ञानप्रकाश अंत में विवाह करने पर राजी तो हो जायगा लेकिन सहज में नहीं। कुछ न हो तो मुझे तो एक बार अपने इनकार के कारण लिखने का अवसर मिला। ज्ञानू को मुझसे प्रेम है लेकिन उसके कारण मैं पारिवारिक अन्याय का दोषी न बनूँगा। हमारा पारिवारिक जीवन सम्पूर्णतः अन्यायमय है। यह कुमति और वैमनस्य क्रूरता और नृशंसता का बीजारोपण करता है। इसी माया में फँस कर मनुष्य अपनी संतान का शत्रु हो जाता है। न मैं आँखों देख कर यह मक्खी न निगलूँगा। मैं ज्ञानू को समझाऊँगा अवश्य। मेरे पास जो कुछ जमा है वह सब उसके विवाह के निमित्त अर्पण भी कर दूँगा। बस इससे ज्यादा मैं और कुछ नहीं कर सकता। अगर ज्ञानू भी अविवाहित रहे तो संसार कौन सूना हो जायगा ऐसे पिता का पुत्र क्या वंशपरम्परा का पालन न करेगा क्या उसके जीवन में फिर वही अभिनय न दुहराया जायगा जिसने मेरा सर्वनाश कर दिया

दूसरे दिन सत्यप्रकाश ने 500 रु. पिता के पास भेजे और पत्र का उत्तर लिखा कि मेरा अहोभाग्य जो आपने मुझे याद किया। ज्ञानू का विवाह निश्चित हो गया इसकी बधाई ! इन रुपयों से नववधू के लिए कोई आभूषण बनवा दीजिएगा। रही मेरे विवाह की बात। मैंने अपनी आँखों से जो कुछ देखा है और मेरे सिर पर जो कुछ बीता है उस पर ध्यान देते हुए यदि मैं कुटुम्बपाश में फँसू तो मुझसे बड़ा उल्लू संसार में न होगा। मुझे आशा है आप मुझे क्षमा करेंगे। विवाह की चर्चा ही से मेरे हृदय को आघात पहुँचता है।

दूसरा पत्र ज्ञानप्रकाश को लिखा कि माता-पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करो। मैं अपढ़ मूर्ख बुद्धिहीन आदमी हूँ मुझे विवाह करने का कोई अधिकार नहीं है। मैं तुम्हारे विवाह के शुभोत्सव में सम्मिलित न हो सकूँगा लेकिन मेरे लिए इससे बढ़ कर आनंद और संतोष का कोई विषय नहीं हो सकता।

देवप्रकाश यह पढ़ कर अवाक् रह गये। फिर आग्रह करने का साहस न हुआ। देवप्रिया ने नाक सिकोड़ कर कहा-यह लौंडा देखने को सीधा है है जहर का बुझाया हुआ ! कैसा सौ कोस से बैठा हुआ बरछियों से छेद रहा है।

किंतु ज्ञानप्रकाश ने यह पत्र पढ़ा तो उसे मर्माघात पहुँचा। दादा और अम्माँ के अन्याय ने ही उन्हें यह भीषण व्रत धारण करने पर बाध्य किया है। इन्हीं ने उन्हें निर्वासित किया है और शायद सदा के लिए। न जाने अम्माँ को उनसे क्यों इतनी जलन हुई। मुझे तो अब याद आता है कि किशोरावस्था ही से वे बड़े आज्ञाकारी विनयशील और गम्भीर थे। अम्माँ की बातों का उन्हें जवाब देते नहीं सुना। मैं अच्छे से अच्छा खाता था फिर भी उनके तीवर मैले न हुए हालाँकि उन्हें जलना चाहिए था। ऐसी दशा में अगर उन्हें गार्हस्थ्य-जीवन से घृणा हो गयी तो आश्चर्य ही क्या फिर मैं ही क्यों इस विपत्ति में फसूँ कौन जाने मुझे भी ऐसी ही परिस्थिति का सामना करना पड़े। भैया ने बहुत सोच-समझ कर यह धारणा की है।

संध्या समय जब उसके माता-पिता बैठे हुए इसी समस्या पर विचार कर रहे थे ज्ञानप्रकाश ने आ कर कहा-मैं कल भैया से मिलने जाऊँगा।

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