गृह दाह – मुंशी प्रेमचंद (Griha Daah – Munshi Premchand)

गृह दाह – मुंशी प्रेमचंद

(Griha Daah – Munshi Premchand)

सत्यप्रकाश के जन्मोत्सव में लाला देवप्रकाश ने बहुत रुपये खर्च किये थे। उसका विद्यारम्भ-संस्कार भी खूब धूम-धाम से किया गया। उसके हवा खाने को एक छोटी-सी गाड़ी थी। शाम को नौकर उसे टहलाने ले जाता था। एक नौकर उसे पाठशाला पहुँचाने जाता। दिन भर वहीं बैठा रहता और उसे साथ लेकर घर आता। कितना सुशील होनहार बालक था ! गोरा मुखड़ा बड़ी-बड़ी आँखें ऊँचा मस्तक पतले-पतले लाल अधर भरे हुए पाँव। उसे देख कर सहसा मुँह से निकल पड़ता था-भगवान् इसे जिला दें प्रतापी मनुष्य होगा। उसकी बल-बुद्धि की प्रखरता पर लोगों को आश्चर्य होता था। नित्य उसके मुखचंद्र पर हँसी खेलती रहती थी। किसी ने उसे हठ करते या रोते नहीं देखा।

वर्षा के दिन थे। देवप्रकाश पत्नी को ले कर गंगास्नान करने गये। नदी खूब चढ़ी हुई थी मानो अनाथ की आँखें हों। उनकी पत्नी निर्मला जल में बैठ कर जल क्रीड़ा करने लगी। कभी आगे जाती कभी पीछे जाती कभी डुबकी मारती कभी अंजुलियों से छींटे उड़ाती। देवप्रकाश ने कहा-अच्छा अब निकलो सरदी हो जायगी। निर्मला ने कहा-कहो मैं छाती तक पानी में चली जाऊँ

देवप्रकाश-और जो कहीं पैर फिसल जाय

निर्मला-पैर क्या फिसलेगा !

यह कह कर वह छाती तक पानी में चली गयी। पति ने कहा-अच्छा अब आगे पैर न रखना किंतु निर्मला के सिर पर मौत खेल रही थी। यह जल क्रीड़ा नहीं मृत्यु-क्रीड़ा थी। उसने एक पग और आगे बढ़ाया और फिसल गयी। मुँह से एक चीख निकली दोनों हाथ सहारे के लिए ऊपर उठे और फिर जलमग्न हो गये। एक पल में प्यासी नदी उसे पी गयी। देवप्रकाश खड़े तौलिया से देह पोंछ रहे थे। तुरंत पानी में कूदे साथ का कहार भी कूदा। दो मल्लाह भी कूद पड़े। सबने डुबकियाँ मारीं टटोला पर निर्मला का पता न चला। तब डोंगी मँगवायी गयी। मल्लाह ने बार-बार गोते मारे पर लाश हाथ न आयी। देवप्रकाश शोक में डूबे हुए घर आये। सत्यप्रकाश किसी उपहार की आशा से दौड़ा। पिता ने गोद में उठा लिया और बड़े यत्न करने पर भी अपनी सिसकी को न रोक सके। सत्यप्रकाश ने पूछा-अम्माँ कहाँ है

देव.-बेटा गंगा ने उन्हें नेवता खाने के लिए रोक लिया।

सत्यप्रकाश ने उनके मुख की ओर जिज्ञासाभाव से देखा और आशय समझ गया। अम्माँ-अम्माँ कह कर रोने लगा।

मातृहीन बालक संसार का सबसे करुणाजनक प्राणी है। दीन से दीन प्राणियों को भी ईश्वर का आधार होता है जो उनके हृदय को सहलाता रहता है। मातृहीन बालक इस आधार से वंचित होता है। माता ही उसके जीवन का एकमात्र आधार होती है। माता के बिना वह पंखहीन पक्षी है।

सत्यप्रकाश का एकांत से प्रेम हो गया। अकेला बैठा रहता। वृक्षों में उसे कुछ-कुछ सहानुभूति का अज्ञात अनुभव होता था जो घर के प्राणियों से उसे न मिलती थी। माता का प्रेम था तो सभी प्रेम करते थे माता का प्रेम उठ गया तो सभी निष्ठुर हो गये। पिता की आँखों में भी वह प्रेम-ज्योति न रही। दरिद्र को कौन भिक्षा देता है।

छह महीने बीत गये। सहसा एक दिन उसे मालूम हुआ मेरी नयी माता आनेवाली हैं। दौड़ा पिता के पास गया और पूछा-क्या मेरी नयी माता आयेंगी।

पिता ने कहा-हाँ बेटा वे आ कर तुम्हें प्यार करेंगी।

सत्य.-क्या मेरी ही माँ स्वर्ग से आ जायेंगी

देव.-हाँ वही माता आ जायगी।

सत्य.-मुझे उसी तरह प्यार करेंगी

देवप्रकाश इसका क्या उत्तर देते मगर सत्यप्रकाश उस दिन से प्रसन्न-मन रहने लगा। अम्माँ आयेंगी ! मुझे गोद में ले कर प्यार करेंगी ! अब मैं उन्हें कभी दिक न करूँगा कभी जिद न करूँगा उन्हें अच्छी कहानियाँ सुनाया करूँगा।

विवाह के दिन आये। घर में तैयारियाँ होने लगीं। सत्यप्रकाश खुशी से फूला न समाता। मेरी नयी अम्माँ आयेंगी। बारात में वह भी गया। नये-नये कपड़े मिले। पालकी पर बैठा। नानी ने अंदर बुलाया और उसे गोद में ले कर एक अशरफी दी। वहीं उसे नयी माता के दर्शन हुए। नानी ने नयी माता से कहा-बेटी कैसा सुन्दर बालक है ! इसे प्यार करना।

सत्यप्रकाश ने नयी माता को देखा और मुग्ध हो गया। बच्चे भी रूप के उपासक होते हैं। एक लावण्यमयी मूर्ति आभूषण से लदी सामने खड़ी थी। उसने दोनों हाथों से उसका अंचल पकड़ कर कहा-अम्माँ !

कितना अरुचिकर शब्द था कितना लज्जायुक्त कितना अप्रिय ! वह ललना जो देवप्रिया नाम से सम्बोधित होती थी यह उत्तरदायित्व त्याग और क्षमा का सम्बोधन न सह सकी। अभी वह प्रेम और विलास का सुख-स्वप्न देख रही थी-यौवनकाल की मदमय वायुतरंगों में आंदोलित हो रही थी। इस शब्द ने उसके स्वप्न को भंग कर दिया। कुछ रुष्ट होकर बोली-मुझे अम्माँ मत कहो।

सत्यप्रकाश ने विस्मित नेत्रों से देखा। उसका बालस्वप्न भी भंग हो गया। आँखें डबडबा गयीं। नानी ने कहा-बेटी देखो लड़के का दिल छोटा हो गया। वह क्या जाने क्या कहना चाहिए। अम्माँ कह दिया तो तुम्हें कौन-सी चोट लग गयी

देवप्रिया ने कहा-मुझे अम्माँ न कहे।

सौत का पुत्र विमाता की आँखों में क्यों इतना खटकता है इसका निर्णय आज तक किसी मनोभाव के पंडित ने नहीं किया। हम किस गिनती में हैं। देवप्रिया जब तक गर्भिणी न हुई वह सत्यप्रकाश से कभी-कभी बातें करती कहानियाँ सुनातीं किंतु गर्भिणी होते ही उसका व्यवहार कठोर हो गया और प्रसवकाल ज्यों-ज्यों निकट आता था उसकी कठोरता बढ़ती ही जाती थी। जिस दिन उसकी गोद में एक चाँद-से बच्चे का आगमन हुआ सत्यप्रकाश खूब उछला-कूदा और सौरगृह में दौड़ा हुआ बच्चे को देखने लगा। बच्चा देवप्रिया की गोद में सो रहा था। सत्यप्रकाश ने बड़ी उत्सुकता से बच्चे को विमाता की गोद से उठाना चाहा कि सहसा देवप्रिया ने सरोष स्वर में कहा-खबरदार इसे मत छूना नहीं तो कान पकड़ कर उखाड़ लूँगी !

बालक उल्टे पाँव लौट आया और कोठे की छत पर जा कर खूब रोया। कितना सुन्दर बच्चा है ! मैं उसे गोद में ले कर बैठता तो कैसा मजा आता ! मैं उसे गिराता थोड़े ही फिर इन्होंने क्यों मुझे झिड़क दिया भोला बालक क्या जानता था कि इस झिड़की का कारण माता की सावधानी नहीं कुछ और ही है।

एक दिन शिशु सो रहा था। उसका नाम ज्ञानप्रकाश रखा गया था। देवप्रिया स्नानागार में थी। सत्यप्रकाश चुपके से आया और बच्चे का ओढ़ना हटा कर उसे अनुरागमय नेत्रों से देखने लगा। उसका जी कितना चाहा कि उसे गोद में ले कर प्यार करूँ पर डर के मारे उसने उसे उठाया नहीं केवल उसके कपोलों को चूमने लगा। इतने में देवप्रिया निकल आयी। सत्यप्रकाश को बच्चे को चूमते देख कर आग हो गयी। दूर ही से डाँटा हट जा वहाँ से !

सत्यप्रकाश माता को दीननेत्रों से देखता हुआ बाहर निकल आया !

संध्या समय उसके पिता ने पूछा-तुम लल्ला को क्यों रुलाया करते हो

सत्य.-मैं तो उसे कभी नहीं रुलाता। अम्माँ खिलाने को नहीं देतीं।

देव.-झूठ बोलते हो। आज तुमने बच्चे को चुटकी काटी।

सत्य.-जी नहीं मैं तो उसकी मुच्छियाँ ले रहा था।

देव.-झूठ बोलता है !

सत्य.-मैं झूठ नहीं बोलता।

देवप्रकाश को क्रोध आ गया। लड़के को दो-तीन तमाचे लगाये। पहली बार यह ताड़ना मिली और निरपराध ! इसने उसके जीवन की कायापलट कर दी।

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