गृह दाह – मुंशी प्रेमचंद (Griha Daah – Munshi Premchand) – Part 3
गृह दाह – मुंशी प्रेमचंद
(Griha Daah – Munshi Premchand)
देवप्रिया-क्या कलकत्ते जाओगे
ज्ञान.-जी हाँ।
देवप्रिया-उन्हीं को क्यों नहीं बुलाते
ज्ञान.-उन्हें कौन मुँह ले कर बुलाऊँ आप लोगों ने पहिले ही मेरे मुँह में कालिख लगा दी है। ऐसा देव-पुरुष आप लोगों के कारण विदेश में ठोकर खा रहा है और मैं इतना निर्लज्ज हो जाऊँ कि…
देवप्रिया-अच्छा चुप रह नहीं ब्याह करना है न कर जले पर लोन मत छिड़क ! माता-पिता का धर्म है इसलिए कहती हूँ नहीं तो यहाँ ठेंगे की परवा नहीं है। तू चाहे ब्याह कर चाहे क्वाँरा रह पर मेरी आँखों से दूर हो जा।
ज्ञान.-क्या मेरी सूरत से भी घृणा हो गयी
देवप्रिया-जब तू हमारे कहने ही में नहीं तो जहाँ चाहे रह। हम भी समझ लेंगे कि भगवान् ने लड़का ही नहीं दिया।
देव.-क्यों व्यर्थ में ऐसे कटुवचन बोलती हो
ज्ञान.-अगर आप लोगों की यही इच्छा है तो यही होगा। देवप्रकाश ने देखा कि बात का बतंगड़ हुआ चाहता है ज्ञानप्रकाश को इशारे से टाल दिया और पत्नी के क्रोध को शांत करने की चेष्टा करने लगे। मगर देवप्रिया फूट-फूट कर रो रही थी और बार-बार कहती थी मैं इसकी सूरत नहीं देखूँगी। अंत में देवप्रकाश ने चिढ़ कर कहा-तो तुम्हीं ने तो कटुवचन कह कर उसे उत्तेजित कर दिया।
देवप्रिया-यह सब विष उसी चांडाल ने बोया है जो यहाँ से सात समुद्र पार बैठा मुझे मिट्टी में मिलाने का उपाय कर रहा है। मेरे बेटे को मुझसे छीनने के लिए उसने यह प्रेम का स्वाँग भरा है। मैं उसकी नस-नस पहिचानती हूँ। उसका यह मंत्र मेरी जान ले कर छोड़ेगा नहीं तो मेरा ज्ञानू जिसने कभी मेरी बात का जवाब नहीं दिया यों मुझे न जलाता !
देव.-अरे तो क्या वह विवाह ही न करेगा ! अभी गुस्से में अनाप- शनाप बक गया है। जरा शांत हो जायगा तो मैं समझा कर राजी कर दूँगा।
देवप्रिया-मेरे हाथ से निकल गया।
देवप्रिया की आशंका सत्य निकली। देवप्रकाश ने बेटे को बहुत समझाया। कहा-तुम्हारी माता इस शोक से मर जायगी किंतु कुछ असर न हुआ। उसने एक बार नहीं करके हाँ न की। निदान पिता भी निराश हो कर बैठ रहे।
तीन साल तक प्रतिवर्ष विवाह के दिनों में यह प्रश्न उठता रहा पर ज्ञानप्रकाश अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहा। माता का रोना-धोना निष्फल हुआ। हाँ उसने माता की एक बात मान ली-वह भाई से मिलने कलकत्ता न गया।
तीन साल में घर में बड़ा परिवर्तन हो गया। देवप्रिया की तीनों कन्याओं का विवाह हो गया। अब घर में उसके सिवा कोई स्त्री न थी। सूना घर उसे फाड़े खाता था। जब वह नैराश्य और क्रोध से पागल हो जाती तो सत्यप्रकाश को खूब जी भर कर कोसती ! मगर दोनों भाइयों में प्रेम-पत्रव्यवहार बराबर होता रहता था।
देवप्रकाश के स्वभाव में एक विचित्र उदासीनता प्रकट होने लगी। उन्होंने पेंशन ले ली थी और प्रायः धर्मग्रंथों का अध्ययन किया करते थे। ज्ञानप्रकाश ने भी आचार्य की उपाधि प्राप्त कर ली थी और एक विद्यालय में अध्यापक हो गये थे। देवप्रिया अब संसार में अकेली थी।
देवप्रिया अपने पुत्र को गृहस्थी की ओर खींचने के लिए नित्य टोने-टोटके किया करती। बिरादरी में कौन-सी कन्या सुन्दरी है गुणवती है सुशिक्षिता है-उसका बखान किया करती पर ज्ञानप्रकाश को इन बातों के सुनने की भी फुरसत न थी।
मोहल्ले के और घरों में नित्य ही विवाह होते रहते थे। बहुएँ आती थीं उनकी गोद में बच्चे खेलने लगते थे घर गुलजार हो जाता था। कहीं बिदाई होती थी कहीं बधाइयाँ आती थीं कहीं गाना-बजाना होता था कहीं बाजे बजते थे। यह चहल-पहल देख कर देवप्रिया का चित्त चंचल हो जाता। उसे मालूम होता मैं ही संसार में सबसे अभागिनी हूँ। मेरे ही भाग्य में यह सुख भोगना नहीं बदा है। भगवान् ऐसा भी कोई दिन आयेगा कि मैं अपनी बहू का मुखचंद्र देखूँगी उसके बालकों को गोद में खिलाऊँगी। वह भी कोई दिन होगा कि मेरे घर में भी आनन्दोत्सव के मधुर गान की तानें उठेंगी ! रात-दिन ये ही बातें सोचते-सोचते देवप्रिया की दशा उन्मादिनी की-सी हो गयी। आप ही आप सत्यप्रकाश को कोसने लगती। वही मेरे प्राणों का घातक है। तल्लीनता उन्माद का प्रधान गुण है। तल्लीनता अत्यंत रचनाशील होती है। वह आकाश में देवताओं के विमान उड़ाने लगती है। अगर भोजन में नमक तेज हो गया तो यह शत्रु ने कोई रोड़ा रख दिया होगा। देवप्रिया को अब कभी-कभी धोखा हो जाता कि सत्यप्रकाश घर में गया है वह मुझे मारना चाहता है ज्ञानप्रकाश को विष खिलाये देता है। एक दिन उसने सत्यप्रकाश के नाम एक पत्र लिखा और उसे जितना कोसते बना उतना कोसा। तू मेरे प्राणों का वैरी है मेरे कुल का घातक है हत्यारा है। वह कौन दिन आयेगा कि तेरी मिट्टी उठेगी। तूने मेरे लड़के पर वशीकरण-मंत्र चला दिया है। दूसरे दिन फिर ऐसा ही एक पत्र लिखा। यहाँ तक कि यह उसका नित्य का कर्म हो गया। जब तक एक चिट्ठी में सत्यप्रकाश को गालियाँ न दे लेती उसे चैन ही न आता था। इन पत्रों को वह कहारिन के हाथ डाकघर भिजवा दिया करती थी।
ज्ञानप्रकाश का अध्यापक होना सत्यप्रकाश के लिए घातक हो गया। परदेश में उसे यही संतोष था कि मैं संसार में निराधार नहीं हूँ। अब यह अवलम्ब भी जाता रहा। ज्ञानप्रकाश ने जोर दे कर लिखा अब आप मेरे हेतु कोई कष्ट न उठायें। मुझे अपनी गुजर करने के लिए काफी से ज्यादा मिलने लगा है।
यद्यपि सत्यप्रकाश की दूकान खूब चलती थी लेकिन कलकत्ते-जैसे शहर में एक छोटे-से दूकानदार का जीवन बहुत सुखी नहीं होता। 660-70 रु. की मासिक आमदनी होती ही क्या है अब तक जो कुछ बचाता था वह वास्तव में बचत न थी बल्कि त्याग था। एक वक्त रूखा-सूखा खा कर एक तंग आर्द्र कोठरी में रह कर 25-30 रु. बच रहते थे। अब दोनों वक्त भोजन करने लगा। कपड़े भी जरा साफ पहिनने लगा। मगर थोड़े ही दिनों में उसके खर्च में औषधियों की एक मद बढ़ गयी और फिर वही पहिले की-सी दशा हो गयी। बरसों तक शुद्ध वायु प्रकाश और पुष्टिकर भोजन से वंचित रह कर अच्छे से अच्छा स्वास्थ्य भी नष्ट हो सकता है। सत्यप्रकाश को भी अरुचि मंदाग्नि आदि रोगों ने आ घेरा। कभी-कभी ज्वर भी आ जाता। युवावस्था में आत्मविश्वास होता है किसी अवलम्ब की परवा नहीं होती। वयोवृद्धि दूसरों का मुँह ताकती है आश्रय ढूँढ़ती है। सत्यप्रकाश पहिले सोता तो एक ही करवट में सबेरा हो जाता। कभी बाजार से पूरियाँ ले कर खा लेता कभी मिठाइयों पर टाल देता। पर अब रात को अच्छी तरह नींद न आती बाजारी भोजन से घृणा होती रात को घर आता तो थक कर चूर-चूर हो जाता था। उस वक्त चूल्हा जलाना भोजन पकाना बहुत अखरता। कभी-कभी वह अपने अकेलेपन पर रोता। रात को जब किसी तरह नींद न आती तो उसका मन किसी से बातें करने को लालायित होने लगता। पर वहाँ निशांधकार के सिवा और कौन था दीवालों के कान चाहे हों मुँह नहीं होता। इधर ज्ञानप्रकाश के पत्र भी अब कम आते थे और वे भी रूखे। उनमें अब हृदय के सरल उद्गारों का लेश भी न होता। सत्यप्रकाश अब भी वैसे ही भावमय पत्र लिखता था पर एक अध्यापक के लिए भावुकता कब शोभा देती है। शनैः-शनैः सत्यप्रकाश को भ्रम होने लगा कि ज्ञानप्रकाश भी मुझसे निष्ठुरता करने लगा नहीं तो क्या मेरे पास दो-चार दिन के लिए आना असम्भव था मेरे लिए तो घर का द्वार बंद है पर उसे कौन-सी बाधा है उस गरीब को क्या मालूम कि यहाँ ज्ञानप्रकाश ने माता से कलकत्ते न जाने की कसम खा ली है। इस भ्रम ने उसे और भी हताश कर दिया।
शहरों में मनुष्य बहुत होते हैं पर मनुष्यता बिरले ही में होती है। सत्यप्रकाश उस बहुसंख्यक स्थान में भी अकेला था। उसके मन में अब एक नयी आकांक्षा अंकुरित हुई। क्यों न घर लौट चलूँ किसी संगिनी के प्रेम में क्यों न शरण लूँ वह सुख और शांति और कहाँ मिल सकती है। मेरे जीवन के निराशांधकार को और कौन ज्योति आलोकित कर सकती है वह इस आवेश को अपनी सम्पूर्ण विचारशक्ति से रोकता जिस भाँति किसी बालक को घर में रखी हुई मिठाइयों की याद बार-बार खेल से घर खींच लाती है उसी तरह उसका चित्त भी बार-बार उन्हीं मधुर चिंताओं में मग्न हो जाता था। वह सोचता-मुझे विधाता ने सब सुख से वंचित कर दिया है नहीं तो मेरी दशा ऐसी हीन क्यों होती मुझे ईश्वर ने बुद्धि न दी थी क्या क्या मैं श्रम से जी चुराता था अगर बालपन में ही मेरे उत्साह और अभिरुचि पर तुषार न पड़ गया होता मेरी बुद्धि-शक्तियों का गला न घोंट दिया गया होता तो मैं आज आदमी होता। पेट पालने के लिए इस विदेश में न पड़ा रहता। नहीं मैं अपने ऊपर यह अत्याचार न करूँगा।
महीनों तक सत्यप्रकाश के मन और बुद्धि में यह संग्राम होता रहा। एक दिन वह दूकान से आ कर चूल्हा जलाने जा रहा था कि डाकिये ने पुकारा। ज्ञानप्रकाश के सिवा उसके पास और किसी के पत्र न आते थे। आज ही उसका पत्र आ चुका था। यह दूसरा पत्र क्यों किसी अनिष्ट की आशंका हुई। पत्र ले कर पढ़ने लगा। एक क्षण में पत्र उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ा और वह सिर थाम कर बैठ गया कि जमीन पर न गिर पड़े। यह देवप्रिया की विषयुक्त लेखनी से निकला हुआ जहर का प्याला था जिसने एक पल में संज्ञाहीन कर दिया। उसकी सारी मर्मांतक व्यथा-क्रोध नैराश्य कृतघ्नता ग्लानि-केवल एक ठंडी साँस में समाप्त हो गयी।
वह जा कर चारपाई पर लेटा रहा। मानसिक व्यथा आग से पानी हो गयी। हा ! सारा जीवन नष्ट हो गया ! मैं ज्ञानप्रकाश का शत्रु हूँ। मैं इतने दिनों से केवल उसके जीवन को मिट्टी में मिलाने के लिए ही प्रेम का स्वाँग भर रहा हूँ। भगवान् ! इसके तुम्हीं साक्षी हो !
दूसरे दिन फिर देवप्रिया का पत्र पहुँचा। सत्यप्रकाश ने उसे ले कर फाड़ डाला पढ़ने की हिम्मत न पड़ी।
एक ही दिन पीछे तीसरा पत्र पहुँचा। उसका भी वही अंत हुआ। फिर वह एक नित्य का कर्म हो गया। पत्र आता और फाड़ दिया जाता। किंतु देवप्रिया का अभिप्राय बिना पढ़े ही पूरा हो जाता था-सत्यप्रकाश के मर्मस्थान पर एक चोट और पड़ जाती थी।
एक महीने की भीषण हार्दिक वेदना के बाद सत्यप्रकाश को जीवन से घृणा हो गयी। उसने दूकान बंद कर दी बाहर आना-जाना छोड़ दिया। सारे दिन खाट पर पड़ा रहता। वे दिन याद आते जब माता पुचकार कर गोद में बिठा लेती और कहती बेटा ! पिता भी संध्या समय दफ्तर से आकर गोद में उठा लेते और कहते भैया ! माता की सजीव मूर्ति उसके सामने आ खड़ी होती ठीक वैसी ही जब वह गंगा-स्नान करने गयी थी। उसकी प्यार-भरी बातें कानों में आने लगतीं। फिर वह दृश्य सामने आ जाता जब उसने नववधू माता को अम्माँ कहकर पुकारा था। तब उसके कठोर शब्द याद आ जाते उसके क्रोध से भरे हुए विकराल नेत्र आँखों के सामने आ जाते। उसे अब अपना सिसक-सिसक कर रोना याद आ जाता। फिर सौरगृह का दृश्य सामने आता। उसने कितने प्रेम से बच्चे को गोद में लेना चाहा था ! तब माता के वज्र के-से शब्द कानों में गूँजने लगते। हाय ! उसी वज्र ने मेरा सर्वनाश कर दिया ! फिर ऐसी कितनी ही घटनाएँ याद आतीं। अब बिना किसी अपराध के माँ डाँट बताती। पिता का निर्दय निष्ठुर व्यवहार याद आने लगता। उनका बात-बात पर तिउरियाँ बदलना माता के मिथ्यापवादों पर विश्वास करना-हाय ! मेरा सारा जीवन नष्ट हो गया ! तब वह करवट बदल लेता और फिर वही दृश्य आँखों में फिरने लगते। फिर करवट बदलता और चिल्ला कर कहता-इस जीवन का अन्त क्यों नहीं हो जाता।
इस भाँति पड़े-पड़े उसे कई दिन हो गये। संध्या हो गयी थी कि सहसा उसे द्वार पर किसी के पुकारने की आवाज सुनायी पड़ी। उसने कान लगाकर सुना और चौंक पड़ा। किसी परिचित मनुष्य की आवाज थी। दौड़ा द्वार पर आया तो देखा ज्ञानप्रकाश खड़ा है। कितना रूपवान पुरुष था ! वह उसके गले से लिपट गया। ज्ञानप्रकाश ने उसके पैरों को स्पर्श किया। दोनों भाई घर में आये। अंधकार छाया हुआ था। घर की यह दशा देख कर ज्ञानप्रकाश जो अब तक अपने कंठ के आवेग को रोके हुए था रो पड़ा। सत्यप्रकाश ने लालटेन जलायी। घर क्या था भूत का डेरा था। सत्यप्रकाश ने जल्दी से एक कुरता गले में डाल लिया। ज्ञानप्रकाश भाई का जर्जर शरीर पीला मुख बुझी हुई आँखें देखता था और रोता था।
सत्यप्रकाश ने कहा-मैं आजकल बीमार हूँ।
ज्ञानप्रकाश-वह तो देख ही रहा हूँ।
सत्य.-तुमने अपने आने की सूचना भी न दी मकान का पता कैसे चला
ज्ञान.-सूचना तो दी थी आपको पत्र न मिला होगा।
सत्य.-अच्छा हाँ दी होगी पत्र दूकान में डाल गया होगा। मैं इधर कई दिनों से दूकान नहीं गया। घर पर सब कुशल है
ज्ञान.-माता जी का देहांत हो गया।
सत्य.-अरे ! क्या बीमार थीं
ज्ञान.-जी नहीं। मालूम नहीं क्या खा लिया। इधर उन्हें उन्माद-सा हो गया था पिता जी ने कुछ कटुवचन कहे थे शायद इसी पर कुछ खा लिया।
सत्य.-पिता जी तो कुशल से हैं
ज्ञान.-हाँ अभी मरे नहीं हैं।
सत्य.-अरे ! क्या बहुत बीमार हैं
ज्ञान.-माता ने विष खा लिया तो वे उनका मुँह खोल कर दवा पिला रहे थे। माता जी ने जोर से उनकी दो उँगलियाँ काट लीं। वही विष उनके शरीर में पहुँच गया। तब से सारा शरीर सूज आया है। अस्पताल में पड़े हुए हैं किसी को देखते हैं तो काटने दौड़ते हैं। बचने की आशा नहीं है।
सत्य.-तब तो घर ही चौपट हो गया।
ज्ञान.-ऐसे घर को अबसे बहुत पहले चौपट हो जाना चाहिए था।
तीसरे दिन दोनों भाई प्रातःकाल कलकत्ते से बिदा हो कर चल दिये।